Bhondu Singh Yadav Ahir – Wikipedia- A freedom Fighter
कानपुर के शेर सूबेदार भोंदू सिंह जी – 1857 की गुमनाम-गाथा
1857 की क्रांति के खौफ़ की वजह से अंग्रेजों ने क्रांति के पश्चात एक जाति/धर्म/क्षेत्र आधारित फौज का गठन किया, जिसकी वफादारी अंग्रेजों और जाति/धर्म/क्षेत्र तक सीमित थी | ऐसी नयी फौज में “बाग़ी कौम” अहीर के लिए कोई स्थान नहीं था क्योंकि 1857 में कानपुर का कत्लेआम उनके जेहन में अमिट खौफ़ छोड़ गया था | कानपुर की इस गाथा को सर-अंजाम दिया था यदुवंशी सरदार सूबेदार भोंदू सिंह जी और उनकी 17 नम्बर की पलटन ने |
…..कहानी की शुरुआत होती है अप्रैल महीने के आखिर में दमदम फौजी छावनी में …एक अँगरेज़ अफसर ने हिन्दुस्तानी सिपाहियों को गाय की चर्बी वाले कारतूस चलाने का हुक्म दिया | सूबेदार भोंदू सिंह जी ने अपना धर्म हारने से इनकार कर दिया लेकिन एक दुसरे जूनियर सूबेदार भोला उपाध्याय ने अंग्रेजों के हुक्म को मानते हुए वो कारतूस को अपने मुंह के इस्तेमाल से फायर किये, जिसके फलस्वरूप भोला उपाध्याय को अंग्रेज़ों के प्रति वफादारी के लिए सूबेदार मेजर बना दिया गया जबकी सूबेदार भोंदू सिंह जी सबसे सीनियर सूबेदार थे | लेकिन वीर यदुवंशी को अपना धर्म प्यारा था न कि ओहदा |
इस घटना के पश्चात , अपनी 17 नम्बर की पलटन को लेकर वीर सूबेदार भोंदू सिंह जी ने 3 जून 1857 को आजमगढ़ में हल्ला बोला दिया और अंग्रेजी-हुकूमत के खिलाफ बगावत का बिगुल बज़ा दिया | फिर वो अपनी पलटन को लेकर कानपूर में नाना साहब के साथ अंग्रेजों से लड़ने आ गये | गंगाजी के घाट के एक तरफ वीर भोंदू सिंह जी अपने सैनिकों के साथ दुश्मन को खत्म करने के लिए मोर्चे पर अड़ गये | उन्होंने फिरंगी जनरल व्हीलर और उसके सैनिकों से गंगाजी की धारा को लहू से लाल कर दिया | अंग्रेजी-सेना में इस कत्लेआम का इतना खौफ़ बैठ गया था कि वो युद्धों में कहते थे कि ” Remember Kanpur–कानपुर को याद करो ” | वीर यदुवंशी सूबेदार ने क्रांति के ज्वार में आजमगढ़ में अपने प्राणों का बलिदान दिया और एक अमिट छाप दुश्मन के दिलों पर छोड़ी, लेकिन भारतीय लेखकों की कलम ने इस वीर योद्धा को इतिहास में कभी कोई स्थान ही नहीं दिया | अंग्रेजों ने “बाग़ी” कौम अहीर को सज़ा-स्वरुप “अहीर रेजिमेंट” काँधे पर नहीं दी , लेकिन आज़ाद हिन्द में भी अहीर सैनिकों के शौर्य व बलिदान को कभी उचित स्थान व सम्मान नहीं मिला …और आज भी कौम यदुवंश अपनी “अहीर रेजिमेंट” से वंचित है | रेजिमेंट के मुद्दे पर कौम के रहनुमाओं का का मौन व उदासीनता इस दर्द को और बढ़ा देता है | आज जब नेता वोटों की खातिर अन्य वर्गों के नायकों की प्रतिमा के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं तो फिर 1857 के महानायक सूबेदार भोंदू सिंह जी की प्रतिमा लगाने से क्यों परहेज़ है ????
(फोटो में 1857 की कानपुर की उस घटना का चित्रण )

1857 की क्रांति के विस्मृत योद्धा भोधू सिंह अहीर- जाने पूरी कहानी
पूर्वांचल में 1857 की क्रान्ति का आरम्भ 03 जून 1857 की रात को आज़मगढ़ से हुआ था। जिसके नायक थे सूबेदार “बोधू सिंह अहीर”। आज़मगढ़ में 17वीं पैदल देसी रेजीमेंट का स्टेशन था। उन दिनों किसी भी भारतीय के लिए सेना का सर्वोच्च पद सूबेदार मेजर का था, जो संयोग से खाली था। उस पद के हकदार रेजीमेंट के वरिष्ठतम सूबेदार “बोधू सिंह” थे। सरकारी रिपोर्ट में उनका नाम BHONDU लिखा मिलता है। हिन्दी में इसका सर्वप्रथम लिप्यांतरण सूचना विभाग ने “बंधू सिंह” किया। किंतु अधिकांश हिन्दी लेखकों ने अंग्रेजी का लिप्यांतरण “भोंदू सिंह” किया है। यदि तत्कालीन ब्रिटिश रिपोर्टों पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट हो जाता हैं कि अधिकांश स्थानों व व्यक्तियों के नाम भ्रष्ट तरीके से लिखे हैं। जैसे गंगा सिंह GUNGA Sigh दर्ज मिलता है, आज़मगढ़ को Azimgurh, मथुरा को Muttra, सीतापुर को Seetapore, गाजीपुर को Ghazeepore लिखा गया है। इस आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि 17वीं के सूबेदार का मूल नाम न तो भोंदू रहा होगा और न बन्धू, बल्कि यह बोधू होगा।
बोधू सिंह के जीवन पर उनके मुकदमें की फाइल से किंचित प्रकाश पड़ता है। यह फाइल प्रयागराज अभिलेखागार (म्यूटिनी रिकार्डस) में देखी जा सकती है। इसका अंग्रेजी अनुवाद अमीर अली रिज्वी द्वारा सम्पादित पुस्तक “फ्रीडम स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश के प्रथम खण्ड में देखा जा सकता है। उक्त स्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार- “बोधू का जन्म सन् 1793 में फर्रूखाबाद जिले के परगना महमूदाबाद में स्थित ग्राम देवसलहा में एक अहीर परिवार में हुआ था। उनके पिता रामदीन भी 17वीं रेजीमेंट की पूर्ववर्ती 11वीं देसी पैदल रेजीमेंट की दूसरी बटालियन के देसी अफसर थे।” डाँ० कन्हैय्या सिंह ने अपनी रचना “उत्तर प्रदेश 1857 का स्वतंत्रता संग्राम” में बोधू के दो भाइयों-किशन प्रसाद और शिवप्रसाद का नामोल्लेख किया है। उनके अनुसार तीनों भाई इस युद्ध में साथ थे। इसके अलावा बोधू के पुत्र रामटहल तथा दामाद माधो सिंह ने भी इस युद्ध में हिस्सा लिया। बोधू का पुत्र रामटहल पहली कम्पनी में था, जबकि भावी दामाद माधो सिंह लाइट इन्फैक्ट्री में|

पिता के सेना में होने के कारण बोधू सिंह का बचपन बैरकों में तथा फौजी कवायद को देखते हुए बीता। अंग्रेजों की रिपोर्ट से आभास मिलता है कि बोधू सिंह शिक्षित और युद्धकला में विशेष रूप से प्रवीणता रखते थे। उन्होंने अपने बयान में बताया है कि पिता के कारण उन्हें बचपन में ही सेना में सूचीबद्ध कर लिया गया था और उसी दिन वे घर छोड़कर निकल गये थे। आरम्भ में वे कर्नल पामर के साथ बतौर अर्दली रहे। परिवार साथ में रहता था। उनके पास अपना कोई घर नहीं था। नौकरी में आने के बाद रेजीमेंट ही उनका घर था। उनके मन में यह इच्छा थी कि यदि अवसर मिला तो वे अपने गृहस्थान फतेहगढ़ में रहेगें। यद्यपि सेना में सूचीबद्ध होने की सही तिथि अज्ञात है लेकिन अनुमान है कि 1808-09 में 15 वर्ष की आयु में उन्होंने सैनिक जीवन आरम्भ किया था। सन् 1825 में वे सिपाही थे। उनके साथ शेख दलेल नामक एक अन्य सिपाही भी रेजीमेंट में नियुक्त था। वे दोनों उस समय रेजीमेंट के सर्वोत्तम तलवारबाज माने जाते थे। वे आपस में तलवारबाजी किया करते थे। मुहर्रम के पर्व पर ताजिया के जुलूस में वे विशेष रूप से अपना हुनर दिखाते थे। शेख दलेल सूबेदार बनकर मरे थे। उनके बाद बोधू रेजीमेंट के खलीफा बन गये। बरोज के अनुसार उसका रेजीमेंट के शमशीरबाजों में, कुश्ती लड़ने वालों में, छोटी जाति वालों में तथा फक्कड़ स्वभाव वालों में अच्छा प्रभाव था और यह प्रभाव उसके पद व आचरण से बढ़कर था।”
सन् 1838 तक बोधू हवलदार बन चुके थे। पैदल देसी रेजीमेंट में सबसे नीचे सिपाही का पद था, जो प्रोन्नत होकर क्रमशः हवलदार, जिमेदार, सूबेदार और सबसे अन्त में सूबेदार मेजर बनता था। प्रत्येक कम्पनी में एक सूबेदार, चार जिमेदार, सोलह हवलदार तथा नब्बे सिपाही होते थे। 1866 के बाद भारतीयों के लिए सर्वोच्च पद “सूबेदार” रह गया। 1857 की क्रान्ति के समय सिपाही का वेतन पाँच रूपये, जबकि सूबेदार मेजर का 25 रूपये मात्र था। जबकि उसी के समकक्ष अंग्रेज मेजर का वेतन रू0 929/- प्रतिमाह था। बरोज ने अपने बयान में बताया है कि 1838 में जब बोधू हवलदार पद पर तैनात था, उन दिनों गवर्नर जनरल पंजाब में थे। उनकी रेजीमेंट को 17वीं एन0आई0 ने एस्कोर्ट किया था। गवर्नर जनरल को लुधियाना से मेरठ आना था। बोधू को भारी सामानों सहित पहले ही मेरठ भेज दिया गया था। बरोज का आरोप है कि बोधू की लापरवाही के कारण रेजीमेंट के सारे सफेद कपड़े गन्दे हो गये। बोधू का प्रमोशन होना था, जिस पर पुनर्विचार किया गया। किन्तु प्रमोशन हो गया। इससे दो बातें स्पष्ट हैं, प्रथम-बरोज बोधू सिंह के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित था और दूसरा-बोधू सिंह की चरित्र पंजिका ठीक रही होगी। अंग्रेजों के लिए सर्वाधिक कष्टप्रद होता था किसी भारतीय नागरिक या मुलाजिम का स्वतंत्र व शक्तिशाली होना। बोधू आत्मविश्वास से भरे ऐसे सैन्य अफसर थे, जिन्हें अपनी रेजीमेंट में भारी समर्थन प्राप्त था। बरोज आगे लिखता है- “ओरई (बुलेन्दखण्ड) में जनरल अफसर की सागर डिवीजन की कमांड लीड करने के कारण उसे बुरी तरह लताड़ा गया था, साथ ही उसे मिसकर्डक्ट भी दिया गया। लेकिन बाद में उसका प्रमोशन सूबेदार के लिए हो गया। सन् 1856 में वह इसी पद पर था। उसका अगला प्रमोशन सूबेदार मेजर के पद पर होना था। क्योंकि रेजीमेंट में वही वरिष्ठतम सूबेदार था।” इससे स्पष्ट है कि यदि बोधू सिंह का सूचीकरण 15 साल की आयु में हुआ होगा तो 1856 में वह 48 साल की सेवा कर चुके थे। बोधू सिंह को पुत्र रामटहल के अलावा एक पुत्री भी थी। जिसका विवाह उन्होंने अपनी ही रेजीमेंट के सिपाही माधो सिंह से तय किया था। माधो सिंह अहीर जाति का अत्यन्त सुन्दर देहयष्टि का, किन्तु उग्र स्वभाव का नवजवान था। बोधू सिंह ने अपने बयान में कहा है कि सगाई तो कर दी थी, लेकिन गोत्र में कुछ अन्तर होने के कारण शादी हो नहीं पायी थी।
सन् 1856 में एफ0डब्लू० बरोज की नियुक्ति चौदह साल बाद पुनः बतौर कमांडिंग अफसर। 7वीं देसी पैदल रेजीमेंट में हो गयी। सन् 1842 में जब वह रेजीमेंट छोड़कर गया था, उस वक्त बोधू हवलदार के पद पर तैनात थे। इन चौदह सालों में वह पहले जिमेदार फिर सूबेदार पर प्रोन्नत हो चुके थे। बरोज को बोधू सिंह पर ज्यादा भरोसा नहीं था। जुलाई 1856 में 17वीं रेजीमेंट कानपुर, इलाहाबाद, बनारस व आज़मगढ़ होते हुए गोरखपुर गई। अगले पाँच माह वहीं रुकी रही। दिसम्बर में गोरखपुर में काफी सैनिक बीमार हो गये। कईयों की मृत्यु हो गयी। सैनिकों में अवसाद बढ़ने लगा। इससे बचने के लिए 12 फरवरी 1857 को यह रेजीमेंट गोरखपुर से वापस अपने मुख्यालय आज़मगढ़ लौट आयी। आज़मगढ़ में बोधू की देख-रेख में नई पुलिस लाइन्स बन रही थी। वरिष्ठ कमेटी में बोधू के अलावा देवीदीन था। अधीक्षण कमेटी में दो जूनियर अफसर और पे-हवलदार की एक उपकमेटी भी थी। पे-हवलदारों में जगरनाथ तिवारी और भीखम सिंह, बरोज के स्वामीभक्त थे।। 17वीं रेजीमेंट की कुल आठ कम्पनियों में से 6 उस समय अपने मुख्यालय आजमगढ़ में थी, शेष दो गोरखपुर में थी। आज़मगढ़ में 500 सिपाही थे। उनमें भी गुट था। हर कम्पनी से दो सिपाहियों को बतौर ओवरसियर कमेटी में रखा गया। सम्पूर्ण काम की निगरानी लेफ्टिनेंट हचिसन करता था। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा। लेफ्टिनेंट का पद जिमेदार के समकक्ष था, लेकिन तनख्वाह सूबेदार से ज्यादा थी और इससे भी बुरी बात यह थी कि लेफ्टीनेंट रैंक का अधिकारी सूबेदार मेजर रैंक के अधिकारी का अधीक्षक था। यह अपमानजनक स्थिति बोधू सिंह को चुभती रही होगी। बरोज के पूछने पर बोधू सिंह ने धीमे काम का कारण स्थानीय लोगों का असहयोग पूर्ण रवैया बताया। बरोज ने कलेक्टर हार्न को पत्र लिखा।
17वीं का सूबेदार मेजर प्रमोट हो गया था। रिक्त पद का भार सी०ओ० बरोज पर था, जिसे वह अपने किसी विश्वासपात्र को देना चाहता था। बोधू सिंह का प्रमोशन रोकने के लिए कुछ देसी अफसर साजिश में लगे थे। बोधू सिंह के विरोधी गुट में सूबेदार भोला उपाध्याय और हवलदार जगरनाथ तिवारी बरोज के कान भरते थे। बरोज बोधू सिंह को 1825 से यानी 32 सालों से जानता था, उसने अपने बयान में कहा था कि-“उसका चरित्र मेरे दिमाग में संदेह पैदा करता था, लेकिन वह बगावत का नेतृत्व करेगा ऐसी कोई सूचना या संदेह नही था।” अप्रैल, 1857 तक पुलिस लाइन्स की इमारत बन गई। बोधू सिंह से बैर रखने वाले किसी व्यक्ति ने काम में घपला की शिकायत कर दी। यह वस्तुतः बोधू के खिलाफ एक सोची-समझी साजिश थी। बरोज ने पहली कम्पनी के हवलदार बैजनाथ सिंह व पाँचवी कम्पनी के हवलदार जगरनाथ तिवारी से पूछा तो पता चला कि कुछ सिपाही नई लाइन्स पर हुए खर्च से असंतुष्ट हैं। बरोज ने लिये गये एडवांस, खपत हो चुकी व शेष सामग्री का अनुपात लगाया। कुछ अन्तर मिला। पूछने पर बोधू ने बताया कि यहाँ के लोग ठेके पर पैसा तो ले चुके हैं, मगर समझौते के अनुसार आपूर्ति नहीं दे रहे हैं। पैसे का लेन-देन कमांडिंग अफसर बरोज के स्वामीभक्त पे-हवलदार देख रहे थे और पूरा अधीक्षण हचिंसन कर रहा था, तथापि पूछताछ सूबेदार बोधू से हो रही थी। बरोज के कहने पर कमिश्नर की आज्ञा से कलेक्टर ने यह काम अपने हाथ में ले लिया।
सूबेदार भोला उपाध्याय ने अप्रैल 1857 में बंगाल प्रेसीडेन्सी के मस्केट्री डिपाँट में कैप्टन सुलोक्ट की उपस्थिति में इन्फील्ड के नये कारतूस प्रयोग करने की घोषणा की थी। सुलोक्ट ने यह घटना बरोज को बताई, और बरोज ने कमांडर इन चीफ को बतायी। अन्ततः बरोज ने भोला उपाध्याय का नाम सूबेदार मेजर के लिए भेजा। इसकी प्रतिक्रिया जानने के लिए उसने बोधू सिंह से नाम भेजने के बाद तथा शासनादेश जारी होने के बाद बात की। कुछ लेखकों ने लिखा है कि प्रमोशन न होने से नाराज बोधू ने बगावत का नेतृत्व किया। जो बेबुनियाद है। बरोज का कहना है कि बोधू सिंह बिल्कुल असंतुष्ट नहीं लगा। बरोज ने आश्वासन दिया कि बोधू का नाम बहादुर के लिए भेजा जायेगा, जो सूबेदार मेजर से ज्यादा पगार (रू0 30/-) पाता है, बशर्ते वह इमारतों के निर्माण से उसे सन्तुष्ट करे। बरोज रेजीमेंट में अपने जासूस रखता था। लेकिन बगावत की कोई भी अभिसूचना प्राप्त नहीं हुई। यह दर्शाता है कि बोधू सिंह अपने मनोभावों को छिपा कर क्रान्ति की योजना को लम्बे समय तक सफलतापूर्वक गुप्त रख सके। बरोज का मुख्य खबरी जगरनाथ तिवारी था। लेकिन उसने भी कोई सूचना नहीं दी।
क्रान्ति का माहौल पहली जून से बनना शुरू हो गया था। उस दिन एडजुटेन्ट को एक पे हवलदार व सिपाही ने सूचना दी कि गोलन्दाज ट्रेजरी जाने के लिए हथियार बन्द हो रहे है। उस समय ट्रेजरी में दो लाख सत्तर हजार रखे थे। बरोज ने घुड़सवार एडजुटेन्ट को भेजकर चेक कराया तो कहीं कुछ न मिला। अंग्रेजों ने सुरक्षा व्यवस्था चालू कर दी थी। 17वीं की ढाई कम्पनी कैप्टन स्टील की कमान में गोरखपुर में तथा एक छोटी टुकड़ी सुगौली में थी। जब गोरखपुर में हलचल बढ़ी तो 17वीं के 125 सैनिकों की देखरेख में खजाना आज़मगढ़ होते बनारस को रवाना कर दिया गया। पाँच लाख का खजाना गगहा में लूटने से बचकर 29 मई को आज़मगढ़ आ गया और 3 जून तक यहीं रहा। एक जून को सूचना मिली कि सिपाही इसे आगे नहीं जाने देना चाहते, जो तस्दीक नहीं हो सका। चार्ल्स बाल का मत कि आज़मगढ़ में बगावत साढ़े सात लाख रूपये के लालच में हुई जो गलत है। बरोज का मत था कि दो दिन पूर्व ही गुप्त रूप से खजाना लूटने की योजना बनी थी। क्वार्टर मास्टर सार्जेण्ट लेविस ने अपने बयान में बताया कि 3 जून की रात को पौने नौ बजे उसने ढोल बजने की आवाज सुनी। तम्बू के बायीं ओर से दो बार फायर की आवाज सुनकर बाहर आया तो बोधू को बेवजह वहाँ खड़ा देखा। पूछने पर उसने घृष्टता से कहा उसे क्या पता, वह उसका काम नहीं।
बोधू ने अपने बयान में कहा है कि 3 जून को मजदूरों का भुगतान करके वह तलवार व कमरबन्द पहने सोने चला गया, 9 बजे बिगुल व शोरगुल सुनकर बाहर आया। लेविस वास्तव में सार्जेण्ट मेजर था, जिसके पास क्वार्टर मास्टर का चार्ज था। वह हवलदार के समकक्ष था। लेविस ने जिमेदार से पूछा तो उसका मत था, यह काम कस्बे में कुछ बदमाशों ने किया है। लेविस वर्दी पहनकर आया और जिमेदार को आदेश देकर बन्दूक चेक करने के लिए गार्द को फाल इन करवाया। एक देसी ईसाई ड्रम मेजर ने बिगुल बजाकर रेजीमेंट को कम्पनियों के खुले कालम में खड़ा कराया। बोधू ने आफीसर्स कॉल बजाने के लिए कहा, मगर लेविस ने मना किया। अधिकारी डर के मारे बाहर न निकले। लेविस ने सैनिकों को सावधान कराके फटकारा और उग्र भाषण देकर उन्हें लाइन्स में जाने को कहा। लेकिन उन्होंने मना कर दिया। लेविस ने ज्यादा जोश में कह दिया कि “अगर किसी ने बगावत की तो उन्हें निकाल दिया जायेगा, या फाँसी दे दी जायेगी।” लेविस के साथ अर्दली माधो सिंह था। उसे बोधू ने सैन्य सहायक (एडजुटेन्ट) बना दिया था। माधो ने उत्तेजित होकर बाहर आकर रेजीमेंट को अपने धर्म की याद दिलाई. मेरठ व दिल्ली के भाइयों का वास्ता दिया; लखनऊ रवाना होने की बात की। माधो ने यह कहते हुए कि-“कम्पनी के नमक हराम हमें टाँग दिया जायेगा तो पहले हम तुम्हें मार डालेगें।” लेविस को सीने में गोली मार दी। वह वहीं गिर पड़ा। लेविस मरा नहीं, बाद में उसे वेनीबुल्स ले गया। बोधू ने रेजीमेंट को अपनी कमांड में ले लिया। बरोज के अनुसार बोधू उस रात सबसे आगे चल रहा था। सैनिकों ने तम्बू के सामने पड़े हथियार उठा लिये। बोधू ने बारूदखाने से सारा गोला-बारूद निकाल कर लाइन मँगवाया। वे लोग जब कचहरी पहुँचे और हचिंसन ने ट्रेजरी लूटने से रोका तो माधो सिंह ने उसे भी गोली मार दी। ट्रेजरी की गार्ड गनर ने भी बगावत की थी। ट्रेजरी में सिर्फ सत्तर हजार बचे थे। उन्हें निकाला गया। हचिंसन व लेविस दोनों पद में बोधू सिंह के नीचे थे।
गोरखपुर वाला खजाना शाम को बैलगाड़ी-ऊँटगाड़ियों पर लदा बनारस को रवाना हो गया था। उसे पकड़ने के लिए आदमी दौड़ाये गये। सात लाख का खजाना लिये लेफ्टीनेन्ट पालीसर को रानी की सराय में जजों के आवास के पास रोका गया। इस एस्कोर्ट में 17वीं पैदल व 13वीं अनियमित के रिसाले के कुल अस्सी आदमी थे। बागियों ने उन्हें घेर लिया। पालीसर निसहाय था। 13वें के सवार अपने अधिकारियों की हत्या नहीं चाह रहे थे। मालेसन के अनुसार- “एक दृढ़ राष्ट्रीय सहानुभूति के कारण वे हमवतनों पर भी कार्यवाही नही चाह रहे थे।” सिपाहियों का व्यवहार रूमानी शालीनता का था। अफसरों को लेकर एस्कोर्ट बनारस गई, जबकि खजाना लेकर बागी वापस लौटे। अंग्रेजों के समर्थक गुट के कारण रक्तपात नहीं हुआ। रामटहल व माधो के गुट ने ट्रेजरी से लौटते समय रास्ते में पड़ने वाली जेल का फाटक दफादार मोहन सिंह से कहकर जेल दरोगा से खुलवा दिया। आठ सौ कैदी बाहर आ गये और अंग्रेजों के बंगले लूटने, तोड़ने लगे। उधर अंग्रेजों के समर्थक गुट ने बग्घियों में भरकर सिविल लोगों, महिलाओं बच्चों को गाजीपुर की ओर रवाना किया। उन्हें ट्रेजरी की छत से उतारा गया था। बागियों ने कहा कि उनकी मंशा अफसरों या उनकी औरतों-बच्चों को मारने की नहीं है। जब तक कि वे अनावश्यक विरोध कर उन्हें उत्तेजित न करें। सौ से ज्यादा अंग्रेज सुरक्षित निकले। मेजर बरोज को भीखम सिंह, रामनरायन सिंह, मंगली दूबे और भगीरथ पाण्डेय एस्कोर्ट कर गाजीपुर ले गये। सभी को बरोज से 500-500 का इनाम मिला।
चार जून को विजय से मस्त सैनिक बैलगाड़ियों व ऊँटगाड़ियों पर लदा खजाना लिये पूरे धूमधाम से वहाँ से सवा सौ किमी दूर फैजाबाद की ओर बढ़े। उधर बनारस में बगावत हो गई, जौनपुर में भी हो गई। फैजाबाद में भी आसार बनने लगे। तमाम पेंशनर व फर्लो पर गये सैनिक बगावत सुनकर लौट आये थे। बोधू को सैनिकों ने अपना जनरल चुना था। कोई सैनिक किसी सैन्य सहायक की बग्घी ले आया। सूबेदार बोधू सिंह अपने ओहदे के अनुसार बग्घी से चल रहे थे। रास्ते में एक पेंशनर सिपाही बिशुननाथ मर गया तो उसके दाह संस्कार के लिए बोधू ने ही साठ रूपया दिया था। शिवपन्त नामक सिपाही ने अपने बयान में कहा है कि बोधू ही रेजीमेंट को कमांड कर रहे थे। पैसा उन्हीं के आदेश पर खर्च किया जाता था। सेना का पहला पड़ाव 6 जून को टाँडा के पास बेगमगंज में नदी तट पर पड़ा। यह स्थान फैजाबाद से 12 मील पूरब में घाघरा तट पर स्थित था। उस समय तक इलाहाबाद में नील ने आम देशवासियों को, यहाँ तक कि बच्चों को नीम के पेड़ में फांसी देनी शुरू कर दी थी। गाँव फूंके जा रहे थे। इसकी सूचना पड़ाव तक पहुँचे भागे सैनिकों से मिल रही थी। देशवासियों पर होने वाले अत्याचार ने 17वीं के सैनिकों को प्रतिहिंसा से भर दिया। अभी दो दिन पहले सौ अंग्रेजों को जिन्दा जाने देने वाले बोधू व माधो सिंह अंग्रेजों से बदला लेने को उतावले हो गये। आरोप है कि 22 वी रेजीमेंट के एक यूरोपी कर्नल को बन्दी बनाकर बेगमगंज में माधो ने गोली मार दी।
7 जून को फैजाबाद में बगावत हो गई। मौलवी अहमदुल्ला और दिलीप सिंह चौहान ने अंग्रेजों को सामान सहित शहर छोड़ने की आज्ञा दी। मुहैय्या करायी गई तीन नावों से वे अंग्रेज निकले। दो नावें। 17वीं के पड़ाव की ओर आ गई। सैनिकों ने उन्हें घेर कर फायर करना शुरू कर दिया। कमिश्नर कर्नल गोल्डसे ने स्वयं को गोली मार ली। उसकी बीबी व कुत्ता पानी में गिरकर मर गये। तीसरी नाँव टाँडा की तरफ थी। जब 17वीं के सैनिक उधर लपके तो, हसन खान के लोगों ने गोली चलाकर अंग्रेजों को बचाया। बचे लोगों को राजा मान सिंह ने शाहगंज के किले में शरण दी। 9 को बेगमगंज में यह घटना हुई। उसी दिन सेना फैजाबाद आ गई। 10-11 जून तक वहीं रहे। फैजाबाद में पहली बार खजाना बाँटा गया। लूट का खजाना आम सहमति से बाँटा जाता था। इसमें से कुछ अंश 22वीं पैदल को भी दिया गया। बोधू को पहली बार में 200 रू0 मिला जो दस माह की तनख्वाह के बराबर था। संभवतः फैजाबाद में पड़ाव के समय लड़ने को आतुर माधो सिंह 200 सवारों को लेकर पहले ही कानपुर भाग गया था। उसके पास कुछ खजाना भी था।
बोध के अनुसार फैजाबाद से सेना उन्नाव आयी। वहाँ हाइवे मिला, जिसे पकड़कर वे बैसवाड़ा (रायबरेली) होते हुए कानपुर को बढ़े। 25 जून की रात बोधू के नेतृत्व वाली सेना कानपुर पहुँची। अपने आदमी देवीदीन के हाथों बोधू ने एक परवाना नाना साहब को भेजा। जिसमें खजाने के साथ पहुँचने तथा माधो के साथ भागे आदमियों को पकड़ने की इच्छा प्रकट की गयी थी। पत्र से स्पष्ट है कि नाना साहब से बोधू के पुराने व गहरे सम्बन्ध थे। 26 जून की रात 10 बजे परवाना का जवाब मिला जिसे नाना साहब के विश्वस्त अजीमुल्ला खाँ ने लिखा था। उसमें बोधू की चालाकी व करनी की दाद दी गई है तथा प्रशंसा करते हुए शुभकामना दी गई है।
सूबेदार भोला उपाध्याय ने अप्रैल 1857 में बंगाल प्रेसीडेन्सी के मस्केट्री डिपाँट में कैप्टन सुलोक्ट की उपस्थिति में इन्फील्ड के नये कारतूस प्रयोग करने की घोषणा की थी। सुलोक्ट ने यह घटना बरोज को बताई, और बरोज ने कमांडर इन चीफ को बतायी। अन्ततः बरोज ने भोला उपाध्याय का नाम सूबेदार मेजर के लिए भेजा। इसकी प्रतिक्रिया जानने के लिए उसने बोधू सिंह से नाम भेजने के बाद तथा शासनादेश जारी होने के बाद बात की। कुछ लेखकों ने लिखा है कि प्रमोशन न होने से नाराज बोधू ने बगावत का नेतृत्व किया। जो बेबुनियाद है। बरोज का कहना है कि बोधू सिंह बिल्कुल असंतुष्ट नहीं लगा। बरोज ने आश्वासन दिया कि बोधू का नाम बहादुर के लिए भेजा जायेगा, जो सूबेदार मेजर से ज्यादा पगार (रू0 30/-) पाता है, बशर्ते वह इमारतों के निर्माण से उसे सन्तुष्ट करे। बरोज रेजीमेंट में अपने जासूस रखता था। लेकिन बगावत की कोई भी अभिसूचना प्राप्त नहीं हुई। यह दर्शाता है कि बोधू सिंह अपने मनोभावों को छिपा कर क्रान्ति की योजना को लम्बे समय तक सफलतापूर्वक गुप्त रख सके। बरोज का मुख्य खबरी जगरनाथ तिवारी था। लेकिन उसने भी कोई सूचना नहीं दी।
क्रान्ति का माहौल पहली जून से बनना शुरू हो गया था। उस दिन एडजुटेन्ट को एक पे हवलदार व सिपाही ने सूचना दी कि गोलन्दाज ट्रेजरी जाने के लिए हथियार बन्द हो रहे है। उस समय ट्रेजरी में दो लाख सत्तर हजार रखे थे। बरोज ने घुड़सवार एडजुटेन्ट को भेजकर चेक कराया तो कहीं कुछ न मिला। अंग्रेजों ने सुरक्षा व्यवस्था चालू कर दी थी। 17वीं की ढाई कम्पनी कैप्टन स्टील की कमान में गोरखपुर में तथा एक छोटी टुकड़ी सुगौली में थी। जब गोरखपुर में हलचल बढ़ी तो 17वीं के 125 सैनिकों की देखरेख में खजाना आज़मगढ़ होते बनारस को रवाना कर दिया गया। पाँच लाख का खजाना गगहा में लूटने से बचकर 29 मई को आज़मगढ़ आ गया और 3 जून तक यहीं रहा। एक जून को सूचना मिली कि सिपाही इसे आगे नहीं जाने देना चाहते, जो तस्दीक नहीं हो सका। चार्ल्स बाल का मत कि आज़मगढ़ में बगावत साढ़े सात लाख रूपये के लालच में हुई जो गलत है। बरोज का मत था कि दो दिन पूर्व ही गुप्त रूप से खजाना लूटने की योजना बनी थी। क्वार्टर मास्टर सार्जेण्ट लेविस ने अपने बयान में बताया कि 3 जून की रात को पौने नौ बजे उसने ढोल बजने की आवाज सुनी। तम्बू के बायीं ओर से दो बार फायर की आवाज सुनकर बाहर आया तो बोधू को बेवजह वहाँ खड़ा देखा। पूछने पर उसने घृष्टता से कहा उसे क्या पता, वह उसका काम नहीं।
बोधू ने अपने बयान में कहा है कि 3 जून को मजदूरों का भुगतान करके वह तलवार व कमरबन्द पहने सोने चला गया, 9 बजे बिगुल व शोरगुल सुनकर बाहर आया। लेविस वास्तव में सार्जेण्ट मेजर था, जिसके पास क्वार्टर मास्टर का चार्ज था। वह हवलदार के समकक्ष था। लेविस ने जिमेदार से पूछा तो उसका मत था, यह काम कस्बे में कुछ बदमाशों ने किया है। लेविस वर्दी पहनकर आया और जिमेदार को आदेश देकर बन्दूक चेक करने के लिए गार्द को फाल इन करवाया। एक देसी ईसाई ड्रम मेजर ने बिगुल बजाकर रेजीमेंट को कम्पनियों के खुले कालम में खड़ा कराया। बोधू ने आफीसर्स कॉल बजाने के लिए कहा, मगर लेविस ने मना किया। अधिकारी डर के मारे बाहर न निकले। लेविस ने सैनिकों को सावधान कराके फटकारा और उग्र भाषण देकर उन्हें लाइन्स में जाने को कहा। लेकिन उन्होंने मना कर दिया। लेविस ने ज्यादा जोश में कह दिया कि “अगर किसी ने बगावत की तो उन्हें निकाल दिया जायेगा, या फाँसी दे दी जायेगी।” लेविस के साथ अर्दली माधो सिंह था। उसे बोधू ने सैन्य सहायक (एडजुटेन्ट) बना दिया था। माधो ने उत्तेजित होकर बाहर आकर रेजीमेंट को अपने धर्म की याद दिलाई. मेरठ व दिल्ली के भाइयों का वास्ता दिया; लखनऊ रवाना होने की बात की। माधो ने यह कहते हुए कि-“कम्पनी के नमक हराम हमें टाँग दिया जायेगा तो पहले हम तुम्हें मार डालेगें।” लेविस को सीने में गोली मार दी। वह वहीं गिर पड़ा। लेविस मरा नहीं, बाद में उसे वेनीबुल्स ले गया। बोधू ने रेजीमेंट को अपनी कमांड में ले लिया। बरोज के अनुसार बोधू उस रात सबसे आगे चल रहा था। सैनिकों ने तम्बू के सामने पड़े हथियार उठा लिये। बोधू ने बारूदखाने से सारा गोला-बारूद निकाल कर लाइन मँगवाया। वे लोग जब कचहरी पहुँचे और हचिंसन ने ट्रेजरी लूटने से रोका तो माधो सिंह ने उसे भी गोली मार दी। ट्रेजरी की गार्ड गनर ने भी बगावत की थी। ट्रेजरी में सिर्फ सत्तर हजार बचे थे। उन्हें निकाला गया। हचिंसन व लेविस दोनों पद में बोधू सिंह के नीचे थे।
गोरखपुर वाला खजाना शाम को बैलगाड़ी-ऊँटगाड़ियों पर लदा बनारस को रवाना हो गया था। उसे पकड़ने के लिए आदमी दौड़ाये गये। सात लाख का खजाना लिये लेफ्टीनेन्ट पालीसर को रानी की सराय में जजों के आवास के पास रोका गया। इस एस्कोर्ट में 17वीं पैदल व 13वीं अनियमित के रिसाले के कुल अस्सी आदमी थे। बागियों ने उन्हें घेर लिया। पालीसर निसहाय था। 13वें के सवार अपने अधिकारियों की हत्या नहीं चाह रहे थे। मालेसन के अनुसार- “एक दृढ़ राष्ट्रीय सहानुभूति के कारण वे हमवतनों पर भी कार्यवाही नही चाह रहे थे।” सिपाहियों का व्यवहार रूमानी शालीनता का था। अफसरों को लेकर एस्कोर्ट बनारस गई, जबकि खजाना लेकर बागी वापस लौटे। अंग्रेजों के समर्थक गुट के कारण रक्तपात नहीं हुआ। रामटहल व माधो के गुट ने ट्रेजरी से लौटते समय रास्ते में पड़ने वाली जेल का फाटक दफादार मोहन सिंह से कहकर जेल दरोगा से खुलवा दिया। आठ सौ कैदी बाहर आ गये और अंग्रेजों के बंगले लूटने, तोड़ने लगे। उधर अंग्रेजों के समर्थक गुट ने बग्घियों में भरकर सिविल लोगों, महिलाओं बच्चों को गाजीपुर की ओर रवाना किया। उन्हें ट्रेजरी की छत से उतारा गया था। बागियों ने कहा कि उनकी मंशा अफसरों या उनकी औरतों-बच्चों को मारने की नहीं है। जब तक कि वे अनावश्यक विरोध कर उन्हें उत्तेजित न करें। सौ से ज्यादा अंग्रेज सुरक्षित निकले। मेजर बरोज को भीखम सिंह, रामनरायन सिंह, मंगली दूबे और भगीरथ पाण्डेय एस्कोर्ट कर गाजीपुर ले गये। सभी को बरोज से 500-500 का इनाम मिला।
चार जून को विजय से मस्त सैनिक बैलगाड़ियों व ऊँटगाड़ियों पर लदा खजाना लिये पूरे धूमधाम से वहाँ से सवा सौ किमी दूर फैजाबाद की ओर बढ़े। उधर बनारस में बगावत हो गई, जौनपुर में भी हो गई। फैजाबाद में भी आसार बनने लगे। तमाम पेंशनर व फर्लो पर गये सैनिक बगावत सुनकर लौट आये थे। बोधू को सैनिकों ने अपना जनरल चुना था। कोई सैनिक किसी सैन्य सहायक की बग्घी ले आया। सूबेदार बोधू सिंह अपने ओहदे के अनुसार बग्घी से चल रहे थे। रास्ते में एक पेंशनर सिपाही बिशुननाथ मर गया तो उसके दाह संस्कार के लिए बोधू ने ही साठ रूपया दिया था। शिवपन्त नामक सिपाही ने अपने बयान में कहा है कि बोधू ही रेजीमेंट को कमांड कर रहे थे। पैसा उन्हीं के आदेश पर खर्च किया जाता था। सेना का पहला पड़ाव 6 जून को टाँडा के पास बेगमगंज में नदी तट पर पड़ा। यह स्थान फैजाबाद से 12 मील पूरब में घाघरा तट पर स्थित था। उस समय तक इलाहाबाद में नील ने आम देशवासियों को, यहाँ तक कि बच्चों को नीम के पेड़ में फांसी देनी शुरू कर दी थी। गाँव फूंके जा रहे थे। इसकी सूचना पड़ाव तक पहुँचे भागे सैनिकों से मिल रही थी। देशवासियों पर होने वाले अत्याचार ने 17वीं के सैनिकों को प्रतिहिंसा से भर दिया। अभी दो दिन पहले सौ अंग्रेजों को जिन्दा जाने देने वाले बोधू व माधो सिंह अंग्रेजों से बदला लेने को उतावले हो गये। आरोप है कि 22 वी रेजीमेंट के एक यूरोपी कर्नल को बन्दी बनाकर बेगमगंज में माधो ने गोली मार दी।
7 जून को फैजाबाद में बगावत हो गई। मौलवी अहमदुल्ला और दिलीप सिंह चौहान ने अंग्रेजों को सामान सहित शहर छोड़ने की आज्ञा दी। मुहैय्या करायी गई तीन नावों से वे अंग्रेज निकले। दो नावें। 17वीं के पड़ाव की ओर आ गई। सैनिकों ने उन्हें घेर कर फायर करना शुरू कर दिया। कमिश्नर कर्नल गोल्डसे ने स्वयं को गोली मार ली। उसकी बीबी व कुत्ता पानी में गिरकर मर गये। तीसरी नाँव टाँडा की तरफ थी। जब 17वीं के सैनिक उधर लपके तो, हसन खान के लोगों ने गोली चलाकर अंग्रेजों को बचाया। बचे लोगों को राजा मान सिंह ने शाहगंज के किले में शरण दी। 9 को बेगमगंज में यह घटना हुई। उसी दिन सेना फैजाबाद आ गई। 10-11 जून तक वहीं रहे। फैजाबाद में पहली बार खजाना बाँटा गया। लूट का खजाना आम सहमति से बाँटा जाता था। इसमें से कुछ अंश 22वीं पैदल को भी दिया गया। बोधू को पहली बार में 200 रू0 मिला जो दस माह की तनख्वाह के बराबर था। संभवतः फैजाबाद में पड़ाव के समय लड़ने को आतुर माधो सिंह 200 सवारों को लेकर पहले ही कानपुर भाग गया था। उसके पास कुछ खजाना भी था।
बोध के अनुसार फैजाबाद से सेना उन्नाव आयी। वहाँ हाइवे मिला, जिसे पकड़कर वे बैसवाड़ा (रायबरेली) होते हुए कानपुर को बढ़े। 25 जून की रात बोधू के नेतृत्व वाली सेना कानपुर पहुँची। अपने आदमी देवीदीन के हाथों बोधू ने एक परवाना नाना साहब को भेजा। जिसमें खजाने के साथ पहुँचने तथा माधो के साथ भागे आदमियों को पकड़ने की इच्छा प्रकट की गयी थी। पत्र से स्पष्ट है कि नाना साहब से बोधू के पुराने व गहरे सम्बन्ध थे। 26 जून की रात 10 बजे परवाना का जवाब मिला जिसे नाना साहब के विश्वस्त अजीमुल्ला खाँ ने लिखा था। उसमें बोधू की चालाकी व करनी की दाद दी गई है तथा प्रशंसा करते हुए शुभकामना दी गई है।
ह्रीलर को नाना ने घेर रखा था जब उसने हार मान कर सहायता माँगी तभी 27 जून 1857 की सत्तीचौरा घाट योजना बनी। नाना द्वारा अंग्रेज सेना न होने, तेरह बन्दूकें लगाने तथा सरकार से सुरक्षा माँगने का जिक्र करते हुए आगे लिखा है कि “कल अंग्रेज लोग 10 बजे नावों में बैठकर नदी यात्रा शुरू करेगें। यद्यपि यह अत्यन्त संशयपूर्ण है लेकिन अंग्रेज कहते हैं कि वे नाव से कलकत्ता जायेगें। इस तरफ नदी कम गहरी है। दूसरी ओर गहरी है अतः नावें उधर ही रखी जायेगी जो साथ में तीन-चार कोस जायेगीं। आपको तैयार रहना चाहिए। नदी के उस पार उन्हें मारने व नष्ट करने के लिए जगह चुन लो और सफल हो जाने पर यहाँ आना।” कुछ नाना को देकर कानपुर में पुनः खजाना बाँटा गया। बोधू को दो बार में कुल 542 रू0 मिला। नाना ने भी पूरी सेना को दो माह का वेतन दिया था। 27 जून को सभी भारतीय सैनिकों को नाना साहब के निरीक्षण के लिए बुलाया गया। इसमें आजमगढ़ की। 17वीं देसी पैदल रेजीमेंट भी शामिल थी। 17वीं NI के जमादार दरियाव सिंह का गाँव नदी घाट के पास था। वहाँ उसने सिपाहियों का गाढ़ा लगाया। सैनिकों ने जयकार बोलकर बन्दकें लगा दी और गाँव में छुप गये।। 17वीं के साथ 12वीं अनियमित के कुछ सैनिक भी थे। आजमगढ़ की ट्रेजरी से लूटी दोनों पोस्टगनें बोधू के पास थीं। 27 जून की सुबह 9 बजे 40 नावें यात्रियों सहित चलने को तैयार थीं। हजारों दर्शक देख रहे थे। नील के अत्याचार लोगों के दिलों में सुलग रहे थे। नाना ने ह्रीलर को शुभ यात्रा का पत्र भेजा। तात्या ने हाथ हिलाकर नावें रवाना की। तभी भीड़ से बिगुल बजा देसी नाविक कूद कर भागे। टामसन ने गुस्से में उन पर गोली दाग दी किनारे से घुड़सवारों ने गोली दागनी शुरू की। वे पानी में घुस गये। नावों में आग लगा दी। कुछ डूबकर मरे, कुछ जलकर, बाकी को तलवार के घाट उतारा गया। ज्यादातर मारे गये। एक नाँव पर 12 लोग भागे। 8 भूखे प्यासे मर गये। बाकी 4 को किसी जमींदार ने शरण दी। शेष 125 को तट पर लाया गया और बीबीघर में रखा गया। हैवलाक की बढ़ती सेना से बचने के लिए 30 जून को मर्दों को मार डाला गया। बीबी बच्चे छोड़ दिये गये।
17वें के सैनिक फतेहपुर, औग-पांडु नदी, अहिरवाँ (कानपुर) में नाना की सेना के साथ मिलकर लड़ते रहे। 17 जुलाई 1857 को हैवलॉक का कब्जा हो गया। तात्या काल्पी चले गये। नाना फतेहपुर चौरासी से लखनऊ आये। दोनों ने छापामार युद्ध शुरू किया। माधो सिंह 200 आदमी के साथ तात्या के साथ चला गया। शेष सेना लेकर बोधू अवध की ओर लौट पड़े। 25 जुलाई को बेगम हजरत महल ने मुहम्मद हसन को गोरखपुर का चकलेदार बना दिया। वह मजबूती से लड़ने लगा। 17वें के बचे सैनिक इसी के साथ मिल गये। 26 दिसम्बर 1857 को गोरखपुर के मझौली में कुंवर सिंह के साथ हरिकृष्ण सिंह व पैना के ठाकुरों ने कर्नल रूक्राफ्ट व जंगबहादुर की गोरखा फौज से जो युद्ध लड़ा उसमें भी नाजिम मुहम्मद हसन की सेना के रूप में 17वीं के सैनिक लड़े। दमन बढ़ा तो 1857 के अन्त तक विद्रोह शिथिल पड़ता गया। लोग नेपाल भागे। 26 नवम्बर 1858 को गोरखपुर की उत्तरी सीमा पर राप्ती किनारे जो युद्ध हुआ उसमें मुहम्मद हसन व बालाराव के 600-700 सैनिक मारे गये। निश्चित रूप से इसमें संख्या में 17वीं के सैनिक भी थे। बाद में 17 मई 1859 को मुहम्मद हसन ने आत्मसमर्पण कर दिया। संभवतः 17वीं के बचे सैनिक नेपाल की तराई में मर खप गये होंगे।
बोधू सिंह से जुड़े ट्रायल की फाइल के सारे बयान 10 जनवरी से 10 फरवरी 1860 के हैं, जो प्रमाण है कि वह जनवरी 1860 में पकड़े गये। उन पर लखनऊ के असिस्टेंट जनरल सुपरिटेण्डेण्ट कैप्टन जे०एच० चेम्बरलिन की कोर्ट में- ‘सरकार बनाम बोधू’ के नाम से मुकदमा चला। मुकदमो की फाइल से स्पष्ट है कि उन पर अनेक आरोप थे, यथा-माधो सिंह ने बोधू के कहने पर लेविस, हचिसन व 22वीं के कर्नल को गोली मारी। उन्होंने लगभग आठ लाख का खजाना लूटा, बागी सेना का नेतृत्व किया और सत्तीचौरा घाट के हत्याकाण्ड में शामिल रहे। यद्यपि इस फाइल में सजा का उल्लेख नहीं मिलता पर निश्चित तौर पर फाँसी दी गयी होगी। बोधू सिंह के भाई व पुत्र रामटहल का इतिहास अज्ञात है। शायद वे युद्ध में मारे गये। माधो सिंह के बारे में एच0 जी0 कीन की पुस्तक- ब्रिटिश एडमिनिस्ट्रेशन ड्यूरिंग द रिवोल्ट ऑफ 1857′ के पृष्ठ 107 पर दर्ज फुटनोट से पता चलता है। कीन आई0सी0एस0 था और 1881 में सेवानिवृत्त हुआ। वह 1867 में कुछ समय के लिए जज था। इससे जान पड़ता है कि इसी साल माधो पर मुकदमा चला और फाँसी दी गई। यह पुस्तक कीन ने 1883 में इंग्लैण्ड में जाकर लिखवाई। वह लिखता है- “आज़मगढ़ में जिस सिपाही ने सार्जेण्ट को गोली मारी थी, उसे एक जासूस ने पकड़ा। जिसे उसने अविवेकपूर्ण ढंग से अपने कारनामे की गुप्त बात बता दी थी। वह ईस्ट इण्डिया रेलवे में प्वांइटमैन के तौर पर कार्यरत था। उसका मुकदमा लेखक के सामने चला। उसे फाँसी दे दी गई। ऐसा सुन्दर आदमी शायद ही देखने को मिले।” उल्लेखनीय है कि तात्या टोपे को शिवपुरी में 18 अप्रैल 1859 को फाँसी दे दी गई थी। शायद उसी समय माधो लखनऊ चला आया था। संभवतः वह इसी इलाके का था। उसके उपर लेविस, हचिंसन, कर्नल को गोली मारने तथा युद्ध में हिस्सा लेने का आरोप था। डाँ० कन्हैय्या सिंह लिखते हैं-“इस तरह इस महान यादव परिवार का प्रत्येक सदस्य आजादी की लड़ाई में होम हो गया।”
अन्ततः बोधू सिंह जैसे लाखों सिपाहियों ने राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होकर देशहित में अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। ऐसे वीर सपूतों पर उपन्यास, कवितायें, नाटक लिखे जाने चाहिए। उन पर रंगमंच, मोशन पिक्चर्स के माध्यम से प्रकाश डाला जाना चाहिए, ताकि वर्तमान पीढ़ी आजादी की कीमत समझ सके। हजारों गद्दारों की तरह ये सैनिक भी अंग्रेजों के साथ मिलकर पुरस्कार प्राप्त कर सकते थे, किन्तु उन्होंने पीड़ा संघर्ष और आत्मोसर्ग का कंटकाकीर्ण मार्ग चुना। बोधू सिंह के उत्सर्ग को सच्ची श्रद्धांजलि देने के लिए आज़मगढ़ पुलिस लाइन्स में उनकी प्रतिमा स्थापित कर उस पर उनका जीवनवृत्त उत्कीर्ण किया जाना चाहिए।
जानिए भोंदू सिंह अहीर का इतिहास जिन्होंने 1857 की क्रांति
‘बोधू सिंह अहिर’ नाटक से राज्य नाट्य समारोह का समापन
देश में आजादी की शमा रोशन करने वाले न जाने कितने भूले-बिसरे परवाने हुए, जिन्हें हम याद तक नहीं करते। भला हो उन दिवानों का जो आज भी ढूंढ-ढूंढकर उन महान योद्धाओं की कहानियां समाज के सामने प्रस्तुत करते हैं। आजमगढ़ की संस्था ‘सूत्रधार ने शुक्रवार की शाम ऐसे ही एक ऐसे योद्धा ‘बोधू सिंह अहिर’.की कहानी का मंचन विंडरमेयर थिएटर में किया।
बोधू सिंह अहिर आजमगढ़ में अंग्रेजों की 17 वीं बटालियन में हुआ करते थे। उन्होंने 3 जून 1857 को क्रांति का बिगुल फूंका। उनके होने वाले दामाद माधव सिंह ने सार्जेन्ट लेविस और ट्रेजरार हचिन्सन की हत्या कर सात लाख 80 हजार रुपये का खजाना लूटा। बोधू ने सारा खजाना नाना जी पेशवा को और अपनी पूरी सेना तात्या टोपे को सौंपा था। वे अपने बेटे राम टहल, भाई शिव वचन व किशन सिंह और दोस्त शाह दिलेर के साथ मिलकर बहादुरी से लड़ते रहे। जब इलाहाबाद में कर्नल नील ने बच्चों और बूढ़ों तक को फांसी पर चढ़ा दिया तब नाना जी के आदेश पर बोधू सिंह अहिर ने 125 अंग्रेजों को सत्ती चौरा घाट पर मौत के घाट उतारकर बदला लिया। इसके बाद लेफ्टिनेंट जर्नल हैवलॉक ने कर्नल नील के साथ कानपुर में हमला किया। बोधू सिंह अहिर की सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया। बोधू अहिर लखनऊ होते हुए गोरखपुर पहुंचे और वहां बेगम हज़रत महल के चकलेदार मुहम्मद हसन के साथ मिलकर लड़ते रहे। इस जंग में मुहम्मद हसन शहीद हुए और बोधू सिंह अहिर को गिरफ्तार कर फांसी पर चढ़ा दिया गया। इस नाटक मंचन से ही राज्य नाट्य समारोह का समापन हुआ।
बोधू सिंह अहिर आजमगढ़ में अंग्रेजों की 17 वीं बटालियन में हुआ करते थे। उन्होंने 3 जून 1857 को क्रांति का बिगुल फूंका। उनके होने वाले दामाद माधव सिंह ने सार्जेन्ट लेविस और ट्रेजरार हचिन्सन की हत्या कर सात लाख 80 हजार रुपये का खजाना लूटा। बोधू ने सारा खजाना नाना जी पेशवा को और अपनी पूरी सेना तात्या टोपे को सौंपा था। वे अपने बेटे राम टहल, भाई शिव वचन व किशन सिंह और दोस्त शाह दिलेर के साथ मिलकर बहादुरी से लड़ते रहे। जब इलाहाबाद में कर्नल नील ने बच्चों और बूढ़ों तक को फांसी पर चढ़ा दिया तब नाना जी के आदेश पर बोधू सिंह अहिर ने 125 अंग्रेजों को सत्ती चौरा घाट पर मौत के घाट उतारकर बदला लिया। इसके बाद लेफ्टिनेंट जर्नल हैवलॉक ने कर्नल नील के साथ कानपुर में हमला किया। बोधू सिंह अहिर की सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया। बोधू अहिर लखनऊ होते हुए गोरखपुर पहुंचे और वहां बेगम हज़रत महल के चकलेदार मुहम्मद हसन के साथ मिलकर लड़ते रहे। इस जंग में मुहम्मद हसन शहीद हुए और बोधू सिंह अहिर को गिरफ्तार कर फांसी पर चढ़ा दिया गया। इस नाटक मंचन से ही राज्य नाट्य समारोह का समापन हुआ।
आजमगढ़ में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बौन्दू अहीर की प्रस्तुति:1857 में जिले की पुलिस लाइन में की थी बगावत, राष्ट्रीय पुरस्कार से पुरस्कृत अभिषेक ने किया निर्देश

आजमगढ़ जिले में आजादी के अमृत महोत्सव के अन्तर्गत स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बौन्दू अहीर की पुस्तुति देते कलाकार।
आजमगढ़ जिले की शारदा टॉकीज में आजादी के अमृत महोत्सव के अर्न्तगत चल रहे कार्यक्रम के तहत बौन्दू अहीर की प्रस्तुति कलाकारों ने की। आजादी के अमृत महोत्सव के अंतर्गत भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायक आजमगढ़ के तत्कालीन सूबेदार बौन्दू अहीर पर केंद्रित प्रस्तुति दर्शकों को भाव विभोर करते हुए जनपद के इतिहास को रेखांकित कर गई। सूत्रधार संस्थान द्धारा नौटंकी शैली में मंचित किए गए इस प्रस्तुति में 1857 के संग्राम में आजमगढ़ की भूमिका और बौन्दू अहीर के नेतृत्व में किए गए बगावत की कहानी दर्शाई गई है। बौन्दू अहीर ने दो जून 1857 को आजमगढ़ पुलिस लाइन में बगावत की और नाना जी पेशवा के साथ मिलकर फैजाबाद लखनऊ से होते हुए कानपुर तक की लड़ाई लड़ी।
17 वीं बटालियन के सूबेदार थे बौन्दू अहीर
नाटक के निर्देशक अभिषेक पंडित ने बताया कि स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में यह पाया जाता है कि 17 वीं बटालियन के विद्रोहियों ने ज्यादा संघर्ष किया। बौन्दू अहीर 17 वीं बटालियन के सूबेदार थे। नाटक की प्रस्तुति में सबसे मजबूत पक्ष अभिनेताओं का गायन व संगीत की धुने रही, जिसे भारतेंदु नाट्य अकादमी के नीरज कुशवाहा ने संयोजित किया। नाटक में नट नटी की भूमिका में शशिकांत कुमार व ममता पंडित ने वाहवाही बटोरी। इस नाटक का आलेख शेषपाल सिंह ने लिखा है जबकि शोध वरिष्ठ पुलिस अधिकारी प्रताप गोपेंद्र ने किया है।